संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा ॥
-ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4
अर्थात व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।
संस्कार विधि में लिखा है-
जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।
अर्थात जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।
संस्कार कितने?
गौतम स्मृति शास्त्र में 40 संस्कारों का उल्लेख है। कुछ जगह 48 संस्कार भी बताए गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार 16 संस्कार प्रचलित हैं, उसके अनुसार-
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति 1/13-15)
संस्कारों से हमारा जीवन बहुत प्रभावित होता है। संस्कार के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों में जो पूजा, यज्ञ, मंत्रोच्चारण आदि होता है, उसका वैज्ञानिक महत्व भी होता है। इन 16 संस्कारों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-
1. गर्भाधान संस्कार
यह ऐसा संस्कार है जिससे योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस प्रकार करें? इसका विवरण दिया गया है। इस संस्कार से कामुकता का स्थान अच्छे विचार ले लेते हैं। ऐसी मान्यता है।
2. पुंसवन संस्कार
यह संस्कार गर्भधारण के दो-तीन महीने बाद किया जाता है। मां को अपने गर्भस्थ शिशु की ठीक से देखभाल करने योग्य बनाने के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार
यह संस्कार गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है। इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था। अत: माता-पिता को चाहिए कि वे इन दिनों विशेष सावधानी के साथ योग्य आचरण करें।
4. जातकर्म संस्कार
शिशु का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य संबंधी सभी दोष दूर हो जाते हैं। नाल छेदन के पूर्व नवजात शिशु को सोने की चम्मच या अनामिका अंगुली (तीसरे नंबर की) से शहद और घी चटाया जाता है। घी आयु बढ़ाने वाला तथा वात व पित्तनाशक है और शहद कफनाशक है। सोने की चम्मच से शिशु को घी व शहद चटाने से त्रिदोष (वात, पित्त व कफ) का नाश होता है।
5. नामकरण संस्कार
शिशु के जन्म के बाद 11वें या सौवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है। बच्चे को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं। उसके नए नाम से सभी लोग उसके उत्तम स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं-
आयुर्वर्चोअभिवृद्धिश्च सिद्धिव्र्यवह्रतेस्तथा। नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभि:।। (स्मृतिसंग्रह)
6. निष्क्रमण संस्कार
इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयु की वृद्धि बताया है- निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभि:।
ये संस्कार शिशु के जन्म के चौथे चा छठे महीने में किया जाता है। सूर्य तथा चंद्रमा आदि देवताओं का पूजन कर शिशु को उनके दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इस संस्कार में इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
7. अन्नप्राशन संस्कार
माता के गर्भ में रहते हुए शिशु के पेट में गंदगी चली जाती है, जिससे उस शिशु में दोष आ जाते हैं। अन्नप्राशन संस्कार के माध्यम से उन दोषों का नाश हो जाता है- अन्नाशमान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुध्दयति।
जब शिशु 6-7 मास का हो जाता है और उसके दांत निकलने लगते हैं, पाचनशक्ति तेज होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है। शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चांदी की चम्मच से नीचे लिखे मंत्र को बोलते हुए शिशु को खीर चटाते हैं-
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ।
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहस:।। (अथर्ववेद 8/2/18)
8. मुंडन संस्कार
शिशु की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं, जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ा कर्म संस्कार कहा जाता है। इसके बाद शिशु के सिर पर दही-मक्खन लगाकर स्नान करवाया जाता है व अन्य मांगलिक क्रियाएं की जाती हैं। इस संस्कार का उद्देश्य शिशु का बल, आयु व तेज की वृद्धि करना है।
9. कर्णवेधन संस्कार
इस परंपरा के अंतर्गत शिशु के कान छेदें जाते हैं। इसलिए इसे कर्णवेधन संस्कार कहा जाता है। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। मान्यता के अनुसार सूर्य की किरणें कानों के छेदों से होकर बालक-बालिका को पवित्र करती हैं और तेज संपन्न बनाती हैं। शास्त्रों में कर्णवेधरहित (जिसके कान छीदे न हो) पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है। कर्णवेध संस्कार के बाद बालक को कुंडल तथा बालिका को कान के आभूषण पहनाने चाहिए।
10. उपनयन संस्कार
इस संस्कार को व्रतादेश व यज्ञोपवित संस्कार भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य का दूसरा जन्म होता है। बालक को विधिवत् यज्ञोपवित (जनेऊ) धारण करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार के द्वारा बालक को गायत्री जाप, वेदों का अध्ययन आदि करने का अधिकार प्राप्त होता है।
11. विद्यारंभ संस्कारइस परंपरा के अंतर्गत शिशु के कान छेदें जाते हैं। इसलिए इसे कर्णवेधन संस्कार कहा जाता है। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। मान्यता के अनुसार सूर्य की किरणें कानों के छेदों से होकर बालक-बालिका को पवित्र करती हैं और तेज संपन्न बनाती हैं। शास्त्रों में कर्णवेधरहित (जिसके कान छीदे न हो) पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है। कर्णवेध संस्कार के बाद बालक को कुंडल तथा बालिका को कान के आभूषण पहनाने चाहिए।
10. उपनयन संस्कार
इस संस्कार को व्रतादेश व यज्ञोपवित संस्कार भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य का दूसरा जन्म होता है। बालक को विधिवत् यज्ञोपवित (जनेऊ) धारण करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार के द्वारा बालक को गायत्री जाप, वेदों का अध्ययन आदि करने का अधिकार प्राप्त होता है।
उपनयन संस्कार हो जाने के बाद बालक को वेदों का अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस संस्कार के अंतर्गत निश्चित समय शुभ मुहूर्त देखकर बालक की शिक्षा प्रारंभ की जाती है। इसे ही विद्यारंभ संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार का मूल उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना है। पूर्व में इस संस्कार के बाद बालक को गुरुकुल भेज दिया जाता था, जहां वह अपने गुरु के संरक्षण में वेदों व अन्य शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करता था।
12. केशांत संस्कार
विद्यारंभ संस्कार में बालक गुरुकुल में रहते हुए वेदों का अध्ययन करता है। उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिए केश और श्मश्रु (दाड़ी) व जनेऊ धारण करने का विधान है। पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद गुरुकुल में ही केशांत संस्कार किया जाता है। इसके बाद श्मश्रु वपन (दाड़ी बनाने) की क्रिया संपन्न की जाती है, इसलिए इसे श्मश्रु संस्कार भी कहा जाता है। यह संस्कार सूर्य के उत्तरायण होने पर ही किया जाता है। कुछ शास्त्रों में इसे गोदान संस्कार भी कहा गया है।
13. समावर्तन संस्कार
समावर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद ब्रह्मचारी अपने गुरु की आज्ञा से अपने घर लौटता है। इसीलिए इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार में वेदमंत्रों से अभिमंत्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान करवाया जाता है, इसलिए इसे वेद स्नान संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार के बाद ब्रह्मचारी गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाता है।
14. विवाह संस्कार
वि यानी विशेष रूप से, वहन यानी ले जाना। विवाह का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को जन्म-जन्मांतर का बंधन माना गया है। यह धर्म का साधन है। विवाह के बाद पति-पत्नी साथ रहकर धर्म का पालन करते हुए जीवन यापन करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त होता है। पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है। विवाह का यही फल बताया गया है-
ब्राह्माद्युद्वाहसंभूत: पितृणां तारक: सूत:।
विवाहस्य फलं त्वेतद् व्याख्यातं परमर्षिभि:।। (स्मृतिसंग्रह)
15. विवाह अग्नि संस्कारसमावर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद ब्रह्मचारी अपने गुरु की आज्ञा से अपने घर लौटता है। इसीलिए इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार में वेदमंत्रों से अभिमंत्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान करवाया जाता है, इसलिए इसे वेद स्नान संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार के बाद ब्रह्मचारी गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाता है।
14. विवाह संस्कार
वि यानी विशेष रूप से, वहन यानी ले जाना। विवाह का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को जन्म-जन्मांतर का बंधन माना गया है। यह धर्म का साधन है। विवाह के बाद पति-पत्नी साथ रहकर धर्म का पालन करते हुए जीवन यापन करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त होता है। पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है। विवाह का यही फल बताया गया है-
ब्राह्माद्युद्वाहसंभूत: पितृणां तारक: सूत:।
विवाहस्य फलं त्वेतद् व्याख्यातं परमर्षिभि:।। (स्मृतिसंग्रह)
विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएं जिस अग्नि में की जाती हैं, उसे आवसथ्य नामक अग्नि कहते हैं। इसी को विवाह अग्नि भी कहा जाता है। विवाह के बाद वर-वधू उस अग्नि को अपने घर में लाकर किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करते हैं व प्रतिदिन अपने कुल की परंपरा के अनुसार सुबह-शाम हवन करते हैं। प्रतिदिन किए जाने वाले इस हवन को ब्राह्मणों के लिए आवश्यक बताया गया है। इसी अग्नि में सभी देवताओं के निमित्त आहुति दी जाती है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि-
कर्म स्मार्तं विवाहाग्नौ कुर्वीत प्रत्यहं गृही।
याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय (2/17)
16. अंत्येष्टि संस्कार
इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी, उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। अंत्येष्टि संस्कार को पितृमेध, अन्त्यकर्म व श्मशानकर्म आदि भी कहा जाता है।
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