सूर्यवंश
के 48 वें राजा हरिशचंद्र अपनी सत्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध है। उनकी सत्य
के प्रति निष्ठा उनके सैकड़ों साल बाद भी सत्य का प्रतीक बनी हुई है। इनका
युग त्रैता माना जाता है। इसलिए सभी पौराणिक ग्रंथों में हरिशचंद्र सत्य
व्रत की कथा पूरे रस और प्रभाव के साथ मिलती है। महाभारत के आदिपर्व के
लोकपाल समाख्यान पर्व व श्रीमद्भागवत पुराण के संदर्भो के अनुसार हरिशचंद्र
त्रिशंकु के पुत्र थे। गीता प्रेस से प्रकाशित भक्त चरितांक में उपलब्ध
संदर्भ के अनुसार विश्वामित्र ने तप के प्रभाव से हरिशचंद्र से स्वप्न में
उनका संपूर्ण राज्य दान में ले लिया।
दूसरे दिन अयोध्या में जाकर विश्वामित्र ने हरिशचंद्र से दान मांगा। हरिशचंद्र के सत्य की पराकाष्ठा यह थी कि उन्होंने सपने मे जो दान दिया था उसे सच में निभाया और पूरा राज्य विश्वामित्र को दान दे दिया। हरिशचंद्र काशी में जाकर बस गए। उन्हें श्मशान मे चांडाल का काम करना पड़ा दरिद्रता का असर उनकी पत्नी शैव्या और पुत्र रोहिताश्व पर भी हुआ। एक दिन सर्पदंश से रोहिताश्व की मौत हो गई। उस समय अपने ही पुत्र के अंतिम संस्कार शुल्क के लिए हरिशचंद्र अड़ गए। तब उनकी पत्नी ने साड़ी का अाधा हिस्सा करके शुल्क रूप में देना चाहा तो भगवान प्रकट हुए और हरिशचंद्र की सत्यनिष्ठा स्वीकार की। इस तरह स्वप्न में दान और अपने ही पुत्र के लिए शुल्क के नियम पर अड़ना हरिशचंद्र की सत्यवादिता का प्रमाण बना।
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