श्री मद्भागवत गीता के पहले और दूसरे अध्याय में अभी तक हमने जाना कि
अर्जुन ने दुखी होकर धनुष-बाण त्याग दिए है। उन्हें ये भी भान नहीं रहा की
शंखध्वनि के साथ ही युद्ध शुरू हो चुका है। और कौरवों के लिए अब निहत्थे
अर्जुन को मारना आसान हो गया है। श्रीकृष्ण ने जब यह देखा तो अपनी माया के
प्रभाव से समय को रोक दिया। अब श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच में होने वाली
बातचीत को न तो कौरव देख सकते थे और न पांडव। इसे केवल एक ही इंसान देख
सकते थे। वो थे संजय जो कि विदुर के पुत्र थे। विदुर हस्तिनापुर की दासी के
बेटे थे। जिन्हें आगे जाकर धृतराष्ट्र और पांडव के बाद तीसरे पुत्र के रूप
में होने का अधिकार मिला था। इस तरह संजय पांडव और कौरवों के भाई हुए।
धृतराष्ट्र अंधे थे, इसलिए युद्ध नहीं कर सकते थे। तब संजय को दिव्य दृष्टि
मिली थी कि वो युद्ध को देख सकेंगे और सारा हाल धृतराष्ट्र को बतला
सकेंगे। तब श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच में होने वाली बातों को संजय ने
धृतराष्ट्र को बतलाया।
संजय ने देखा कि दुखी अर्जुन को श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि युद्ध करो।
लेकिन अर्जुन को इस युद्ध में अपनी भलाई नजर नहीं आ रही है। उनके अनुसार
अपने अपनों को मारने से और उनके बगैर जिंदगी को बिताने से तो अच्छा है कि
राजमहल का सुख छोड़कर और राजा बनने का विचार त्यागकर भीख मांगकर ही गुजारा
कर लिया जाए। श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन के मन में घोर निराशा थी। जिसे
दूर करना कोई साधारण बात नहीं थी। क्योंकि जो अर्जुन सोच रहे थे। मनुष्य
जीवन में जीते हुए प्रत्येक इंसान यही सोचता है। अब समय आ गया था कि अर्जुन
को आत्मा का ज्ञान दिया जाए। वो ज्ञान जो साधारण व्यक्ति के हृदय को
प्रकाशवान कर सकता है। आत्मा का यह ज्ञान किसी चमत्कार से कम नहीं।
श्री कृष्ण ने कहा- हे अर्जुन! ये जो सुख और दुख हैं, ये सर्दी और
गर्मी की ही तरह केवल थोड़े समय के लिए होते हैं। सुख और दुख को महसूस करने
वाली ये जो स्थिति बनी है, जो कि हमारी इंद्रियों को तड़पाती है। हमें दुख
में दुखी करती है और सुख में सुखी करती है। उन पलों को, केवल उन पलों को
सहन करो।
क्योंकि जिसने सुख और दुख को एक समान समझ लिया, ऐसे मनुष्य को कोई भी परिस्थिति दुखी नहीं कर पाएगी।
हे अर्जुन! जैसे झूठ कभी हो ही नहीं सकता, क्योंकि झूठ कभी हुआ ही
नहीं है। उसी प्रकार सच कभी मिट नहीं सकता है, क्योंकि जो सच है वो घटित
हुआ है। उसी प्रकार ये जो शरीर है, इसे रहना नहीं है, क्योंकि ये तो बना ही
मिटने के लिए है। और ये जो आत्मा है, ये बनी है हमेशा रहने के लिए। इसलिए
आत्मा का ये शरीर है,ये नष्ट होने वाला ही है। इसलिए तू युद्ध कर।
श्री कृष्ण आगे कहते हैं- हे अर्जुन! इस आत्मा को जो मरा मानता है या
ये आत्मा भी मर जाएगी। जो भी इंसान ऐसा मान लेता है। वो ये नहीं जानता है
कि आत्मा न तो मरती है। और नाही मारी जाती है। ये आत्मा न तो सतयुग,
त्रेतायुग, द्वापरयुग और नाही कलयुग में कभी जन्म लेगी। और नाही कभी किसी
भी युग में मरेगी।
इस आत्मा का कभी भी जन्म नहीं हुआ है। ये तो बिना जन्मीं है। ये तब से है, जब से ब्रह्मांड है। ये होने के लिए है।
जो भी इस आत्मा नित्य और अजन्मा मान लेता है। वह न तो किसी को मार
सकता है और ना ही किसी को मरवा सकता है। अब यदि तुम ये कहते हो कि मैं तो
शरीर के मरने का ही दुख कर रहा हूं। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है अर्जुन।
क्योंकि जिस प्रकार से हम पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करते
हैं। उसी प्रकार ये आत्मा भी पुराने शरीरों को त्यागकर नया शरीरों को धारण
करती रहती हैं।
इस आत्मा के विषय में ये भी समझ लो अर्जुन कि -
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं केल्दयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।
इस आत्मा को कोई शस्त्र नहीं काट सकता है और आग भी इसको जला नहीं सकती है। जल इसको गीला नहीं कर सकता है और वायु भी इसको सुखा नहीं सकती है। क्योंकि यह आत्मा बिना देह की, बिना शुरुआत वाली, बिना अंत की है। यह सनातन है और स्थिर रहने वाला है। कहीं भी और कभी भी उपस्थित हो जाने की शक्ति इस आत्मा के पास है। इस आत्मा के रंग-रूप में कभी कोई बदलाव आने वाला नहीं है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं केल्दयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।
इस आत्मा को कोई शस्त्र नहीं काट सकता है और आग भी इसको जला नहीं सकती है। जल इसको गीला नहीं कर सकता है और वायु भी इसको सुखा नहीं सकती है। क्योंकि यह आत्मा बिना देह की, बिना शुरुआत वाली, बिना अंत की है। यह सनातन है और स्थिर रहने वाला है। कहीं भी और कभी भी उपस्थित हो जाने की शक्ति इस आत्मा के पास है। इस आत्मा के रंग-रूप में कभी कोई बदलाव आने वाला नहीं है।
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