Thursday 26 March 2015

370 किमी. पैदल चल यहां आया था अकबर, अमिताभ भी झुका चुके हैं शीश


भारत में ऐसे अनेक तीर्थ हैं, जो सभी धर्मों के लिए आस्था का केंद्र हैं। ऐसा ही एक तीर्थ है अजमेर शरीफ, जहां ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर आगरा से 370 किमी. पैदल ही चलकर ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पुत्र प्राप्ति की कामना लिए आया था। यही नहीं बॉलीवुड के शहंशाह माने जाने वाले अमिताभ बच्चन भी दादा बनने के बाद यहां चादर चढ़ाने आए थे। आज इस दर पर हर तबके के चेहरे दिखाई देते हैं चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। यहां अक्सर बॉलीवुड स्टार्स अपने फिल्मों की सफलता के लिए दुआ मांगने आते रहे हैं।
बेहद दिलचस्प है इस दरगाह की कहानी
89 साल की उम्र में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने खुद को घर के अंदर बंद कर लिया। उनसे जो भी मिलने आता, वह मिलने से इनकार कर देते। इस दौरान नमाज अता करते-करते वह एक दिन अल्लाह को प्यारे हुए। उनके चाहने वालों ने उस स्थान पर उन्हें दफना दिया और कब्र बना दी। बाद में, उस स्थान पर उनके प्रिय भक्तों ने एक भव्य मकबरे का निर्माण कराया, जिसे आजकल 'ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मकबरा' कहा जाता है।
रोचक है यहां की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
 माना जाता है कि ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती साहिब सन 1195 ई में मदीना से भारत आए थे। ख्वाजा साहिब ऐसे व़क्त भारत में आए, जब मोहम्मद गौरी की फौज पृथ्वीराज चौहान से पराजित होकर वापस गजनी की ओर भाग रही थी। उन लोगों ने ख्वाजा साहिब से कहा कि आप आगे न जाएं। आगे जाने पर आपके लिए ख़तरा पैदा हो सकता है, चूंकि मोहम्मद गौरी की पराजय हुई है। मगर ख्वाजा साहिब नहीं माने। वह कहने लगे, चूंकि तुम लोग तलवार के सहारे दिल्ली गए थे, इसलिए वापस आ रहे हो। मगर मैं अल्लाह की ओर से मोहब्बत का संदेश लेकर जा रहा हूं।
थोड़ा समय दिल्ली में रुककर वह अजमेर चले गए और वहीं रहने लगे। वह जब 97 वर्ष के हुए तो उन्होंने ख़ुद को घर के अंदर बंद कर लिया। जो भी मिलने आता, वह मिलने से इनकार कर देते। नमाज अता करते-करते वह एक दिन अल्लाह को प्यारे हुए, उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने उन्हें दफ़ना दिया और क़ब्र बना दी। बाद में उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने मकबरा बना दिया, जिसे आजकल ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मकबरा कहते है।
पुत्र प्राप्ति के बाद अकबर 437 किमी. पैदल चलकर आया था
ईरान में जन्में ख्वाजा साहब अपने जीवन के कुछ पड़ाव वहां बिताने के बाद भारत आ गए। एक बार बादशाह अकबर ने दरगाह शरीफ में दुआ मांगी कि उन्हें पुत्र-रत्न प्राप्त होगा तो वे पैदल चलकर जियारत पेश करने आएंगे। सलीम को पुत्र के रूप में प्राप्त करने के बाद अकबर ने आगरा से 437 किमी. दूर अजमेर शरीफ तक की यात्रा नंगे पैर चलकर की थी। यहां मन्नत मांगने के साथ पवित्र धागा बांधने का तो रिवाज है, परंतु मुराद पूरी होने पर खोलने का नहीं।
हाथ लगते ही खुल गया था द्वार
ख़्वाजा के वंशज हुसैन अजमेरी ग़रीब नवाज़ की औलाद से ताल्लुक रखतें हैं। उनके पिता की मृत्य के बाद अजमेर शरीफ के लोगों ने यह तय किया कि उनके तीनो भाइयों को ख्वाजा के दर पर ले चलते हैं। इनमें से जिसके हाथ लगाने से दरवाजा रोजा शरीफ खुद-ब-खुद खुल जाएगा उसी को दरगाह शरीफ का दीवान मुकर्रर कर दिया जाएगा। लिहाजा उनके दो भाइयों के हाथ से रोजा शरीफ का दरवाजा नहीं खुला। उनके हाथ लगाते ही रोजा शरीफ का दरवाजा खुल गया।
वास्तुकला का सुंदर संगम
तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है...यहां ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है। दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बेहद खूबसूरत है। इसका कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहांगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था।
दरगाह के अंदर है चांदी का कटघरा
दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चांदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहां कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।
अकबर द्वारा चढ़ाए गए देग में बनता है पकवान
दरगाह के बरामदे में दो बड़ी देग रखी हुई हैं...इन देगों को बादशाह अकबर और जहांगीर ने चढ़ाया था। तब से लेकर आज तक इन देगों में काजू, बादाम, पिस्ता, इलायची, केसर के साथ चावल पकाया जाता है और गरीबों में बांटा जाता है। दरगाह में एक सुंदर महफिलखाना तथा कई दरवाजे हैं, जहां कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आसपास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।
 

No comments:

Post a Comment