Thursday, 3 December 2015

जन्मदिवस: भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की अनदेखी तस्वीरें और अंजानी बातें

अपने बड़े भाई महेंद्र प्रसाद के साथ डॉ राजेंद्र प्रसाद, उनके बड़े भाई का उनके जीवन में बड़ा योगदान था
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि गोपाल कृष्ण गोखले से मिलने के बाद वे आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए बेचैन हो गए.
राजेंद्र प्रसाद ने ये पत्र रूस के शहर सोची से पोस्टकार्ड पर लिखा था 
 मगर परिवार की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर थी. 15-20 दिन तक काफ़ी सोचने समझने के बाद अपने बड़े भाई महेंद्र प्रसाद और पत्नी राजवंशी देवी को भोजपुरी में पत्र लिखकर देश सेवा करने की अनुमति मांगी.
उनका ख़त को पढ़कर उनके बड़े भाई रोने लगे. वे सोचने लगे कि उनको क्या जवाब दें. बड़े भाई से सहमति मिलने पर ही राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्रता आंदोलन में उतरे.
बाबू राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के भोजपुर क्षेत्र में जीरादेई नाम के गाँव में हुआ था जो अब सिवान ज़िले में है.
राजेंद्र प्रसाद और उनकी पत्नी राजवंशी देवी बहुत सादगी से राष्ट्रपति भवन में रहते थे 
13 साल की उम्र में राजेंद्र प्रसाद का विवाह राजवंशी देवी से हो गया. इस समय वे स्कूल में पढ़ रहे थे.
राष्ट्रपति भवन में अंग्रेज़ियत का बोलबाला था जबकि राजवंशी देवी मानती थीं कि 'देश छोड़ो तो छोड़ो मगर अपना वेश मत छोड़ो. अपनी संस्कृति क़ायम रखो'.
महात्मा गांधी राजेंद्र प्रसाद की योग्यता और व्यवहार से काफ़ी प्रभावित हुए थे 
राजेंद्र प्रसाद गांधीजी के मुख्य शिष्यों में से एक थे और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
डॉ. तारा सिन्हा, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पोती हैं. उनका कहना है कि डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान की रूप रेखा तैयार की. मगर आज इस बात की चर्चा कहीं नहीं है. डॉ राजेंद्र प्रसाद के सम्मान में भारत में किसी प्रकार का कोई दिवस नहीं मनाया जाता है, ना ही संसार में उनके नाम पर कोई शिक्षण संस्थान ही है.
राजेंद्र प्रसाद अपने खान-पान और रहन-सहन में पूरी तरह से ठेठ भारतीय थे 
रात आठ बजते-बजते वो रात का खाना खा लेते थे. उनका खाना एकदम सादा होता था. फलों में आम उनको बहुत पसंद था. वे जल्दी सोते थे और बहुत सुबह जाग जाते थे.
वक़ालत की पूरी पढ़ाई उन्होंने सुबह उठकर ही की है. इस बात का ज़िक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया है.
राजेंद्र प्रसाद धार्मिक व्यक्ति थे जो हिंदू रीति-रिवाज़ों का पालन करते थे लेकिन राजनीतिक रूप से पूरी तरह गांधीवादी थे 
 1915 में उन्होंने स्वर्णपदक के साथ लॉ में मास्टर्स की डिग्री हासिल की और बाद में पी एचडी की.
राजेंद्र प्रसाद दमा के मरीज़ थे. दमा उनकी मां को भी था. जुलाई 1961 में राजेंद्र प्रसाद गंभीर रूप से बीमार पड़े थे. डॉक्टरों ने कहा कि अब वो नहीं बचेंगे
राजेंद्र प्रसाद दमे की वजह से काफ़ी परेशान रहते थे, ये पारिवारिक तस्वीर अस्पताल में ली गई थी 
मगर अगस्त 1961 को भयंकर बीमारी के बाद वे ठीक हो गए, राष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा होने के बाद वे पटना आए थे.
अस्पताल से घर लौटने पर राजेंद्र प्रसाद की आरती उतारतीं उनकी पोती तारा सिन्हा  उस समय उनको मात्र 1100 रुपये पेंशन मिलती थी. पटना के सदाकत आश्रम में सेवानिवृत होने के बाद अपना जीवन गुज़ारा और 28 फरवरी, 1963 को यहीं उनकी मृत्यु भी हुई.
चीनी प्रधानमंत्री के साथ अनौपचारिक मूड में  राष्ट्रपति भवन में जब कभी विदेशी अतिथि आते तो उनके स्वागत में उनकी आरती की जाती थी और राजेंद्र बाबू चाहते थे कि विदेशी मेहमानों को भारत की संस्कृति की झलक दिखाई जाए.

Saturday, 26 September 2015

महाराष्ट्र के 8 मंदिर, जहां गणेश की मूर्तियां खुद प्रकट हुईं

भगवान गणेश हिन्दू धर्म में प्रथम पूजनीय भगवान माने जाते हैं। भगवान गणेश को रिद्धि-सिद्धि और बुद्धि का देवता कहा जाता है। महाराष्ट्र के सबसे बड़े उत्सवों में गणेश उत्सव भी शामिल है। हर साल गणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक यह उत्सव मनाया जाता है। महाराष्ट्र की संस्कृति में गणपति का विशेष स्थान है। इस राज्य में भगवान गणेश के कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जिनमें गणेशजी के अष्टविनायक मंदिर भी शामिल हैं। जिस प्रकार भगवान शिव के12 ज्योतिर्लिंगों का विशेष महत्व है, ठीक उसी प्रकार गणपति उपासना के लिए महाराष्ट्र के अष्टविनायक का विशेष महत्व है।
इन मंदिरों के संबंध में मान्याता है कि यहां विराजित गणेश प्रतिमाएं खुद प्रकट हुई हैं। ये मूर्तियां मानव निर्मित न होकर प्राकृतिक हैं। अष्टविनायक के ये सभी आठ मंदिर बहुत पुराने हैं। इन सभी मंदिरों का उल्लेख कई ग्रंथों में में भी मिलता है। इन आठ गणपति धामों की यात्रा अष्टविनायक तीर्थ यात्रा के नाम से जानी जाती है। इन प्रतिमाओं के प्राप्त होने के क्रम के अनुसार ही अष्टविनायक की यात्रा भी की जाती है। मान्यता है कि इन मंदिरों के दर्शन क्रम अनुसार करना चाहिए। जिन लोगों के लिए अष्टविनायक की यात्रा करना संभव नहीं है, वे इनके चित्रों के दर्शन करके भी पुण्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
1. श्री मयूरेश्वर मंदिर
अष्ट विनायक में पहला गणेश मंदिर है श्री मयूरेश्वर मंदिर। गणपतिजी का यह मंदिर पुणे से 80 किलोमीटर दूरी पर मोरगांव नाम की जगह पर है। मयूरेश्वर मंदिर के चारों कोनों में मीनारें हैं और लंबे पत्थरों की दीवारें हैं। यहां चार द्वार हैं। ये चारों दरवाजे चारों युग सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के प्रतीक हैं। इस मंदिर के द्वार पर शिवजी के वाहन नंदी बैल की मूर्ति स्थापित है, इसका मुंह भगवान गणेश की मूर्ति की ओर है। नंदी की मूर्ति के संबंध में यह मान्यता प्रचलित है कि प्राचीन काल में शिवजी और नंदी इस मंदिर क्षेत्र में विश्राम के लिए रुके थे, लेकिन बाद में नंदी ने यहां से जाने के लिए मना कर दिया। तभी से नंदी यहीं पर हैं। नंदी और मूषक (चूहा) दोनों ही मंदिर के रक्षक के रूप में रहते हैं। मंदिर में गणेशजी बैठी मुद्रा में विराजमान हैं तथा उनकी सूंड बाएं हाथ की ओर है, उनकी चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं।
2. सिद्धिविनायक मंदिर
अष्ट विनायक में दूसरा गणेश मंदिर है सिद्धिविनायक मंदिर। यह मंदिर पुणे से करीब 200 किमी दूरी पर है। इस मंदिर के पास ही भीम नदी है। यह मंदिर पुणे के सबसे पुराने मंदिरों में से एक माना जाता है। सिद्धटेक में सिद्धिविनायक मंदिर बहुत ही सिद्ध स्थान है। मान्यता है कि यहीं पर भगवान विष्णु ने सिद्धियां हासिल की थी। सिद्धिविनायक मंदिर एक पहाड़ की चोटी पर बना हुआ है। जिसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। मंदिर की परिक्रमा के लिए पहाड़ी की यात्रा करनी होती है। यहां गणेशजी की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। मूर्ति का मुंह उत्तर दिशा की ओर है। भगवान गणेश की सूंड सीधे हाथ की ओर है।
 
3. श्री बल्लालेश्वर मंदिर
अष्टविनायक में तीसरा मंदिर श्री बल्लालेश्वर मंदिर है। यह मंदिर मुंबई-पुणे हाइवे पर पाली से टोयन में और गोवा राजमार्ग पर नागोथाने से पहले 11किलोमीटर दूरी पर है। इस मंदिर का नाम गणेशजी के भक्त बल्लाल के नाम पर पड़ा है। माना जाता है कि पुराने समय में बल्लाल नाम का एक लड़का था, जो गणेशजी का परमभक्त था। एक दिन उसने पाली गांव में विशेष पूजा का आयोजन किया। पूजन कई दिनों तक चल रहा था, पूजा में शामिल कई बच्चे घर लौटकर नहीं गए और वहीं बैठे रहे। इस कारण उन बच्चों के माता-पिता ने बल्लाल को पीटा और गणेशजी की प्रतिमा के साथ उसे भी जंगल में फेंक दिया। गंभीर हालत में भी बल्लाल गणेशजी के मंत्रों का जप करता रहा। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर गणेशजी ने उसे दर्शन दिए। तब बल्लाल ने गणेशजी से वरदान मांगा कि अब वे इसी स्थान पर निवास करें। गणपति ने उसकी प्रार्थना सुन ली। तभी से गणेशजी बल्लालेश्वर नाम से यहां विराजित हो गए।
4. श्री वरदविनायक मंदिर
अष्ट विनायक में चौथा मंदिर है श्री वरदविनायक मंदिर। यह मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर क्षेत्र में है। महाड़ नाम के एक सुन्दर पर्वतीय गांव में श्री वरदविनायक मंदिर है। यहां प्रचलित मान्यता के अनुसार वरदविनायक भक्तों की सभी कामनाओं को पूरा करते है। इस मंदिर में नंददीप नाम का एक दीपक है, जो कई वर्षों में जल रहा है। कहा जाता है कि वरदविनायक का नाम लेने मात्र से ही सभी मनोकामनां पूर्ण हो सकती हैं।
5. चिंतामणि गणपति मंदिर
अष्टविनायक में पांचवां मंदिर है चिंतामणि गणपति। यह मंदिर पुणे जिले के हवेली क्षेत्र में है। मंदिर के पास ही तीन नदियों भीम, मुला और मुथा का संगम है। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यदि किसी भक्त का मन बहुत विचलित है और जीवन में दुखों का सामना करना पड़ रहा है तो इस मंदिर में आने पर उसकी सभी समस्याएं दूर हो सकती हैं। ब्रहमाजी ने अपने विचलित मन को वश में करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी।
6. श्री गिरजात्मज गणपति मंदिर
अष्टविनायक मंदिरों में छठा मंदिर है श्री गिरजात्मज। यह मंदिर पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर दूरी पर है। क्षेत्र के नारायणगांव से इस मंदिर की दूरी 12 किलोमीटर है। गिरजात्मज का अर्थ है गिरिजा यानी माता पार्वती के पुत्र गणेश। यह मंदिर एक पहाड़ पर बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है। यहां लेनयादरी पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं और इनमें से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 300 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। यह पूरा मंदिर ही एक बड़े पत्थर को काटकर बनाया गया है।
7. विघ्नेश्वर गणपति मंदिर
अष्टविनायक में सातवें स्थान पर है विघ्नेश्वर गणपति। यह मंदिर पुणे के ओझर जिले में जूनर क्षेत्र में है। यह पुणे-नासिक रोड पर नारायणगावं से जूनर या ओजर होकर करीब 85 किलोमीटर दूरी पर है। कथाओं के अनुसार विघनासुर नामक एक असुर था जो संतों को परेशान करता रहता था। भगवान गणेश ने इसी क्षेत्र में उस असुर का वध किया और सभी को कष्टों से मुक्ति दिलाई थी। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर, विघ्नहर्ता और विघ्नहार के रूप में जाना जाता है।
8. महागणपति मंदिर
अष्टविनायक मंदिर में आठवां गणेश मंदिर है महागणपति मंदिर। यह मंदिर पुणे के राजणगांव में है। यह पुणे-अहमदनगर राजमार्ग पर 50 किलोमीटर की दूरी पर है। इस मंदिर का इतिहास 9-10वीं सदी के बीच माना जाता है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है जो कि बहुत विशाल और सुन्दर है। भगवान गणपति की मूर्ति को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। मान्यता के अनुसार, मंदिर की मूल मूर्ति तहखाने की छिपी हुई है। पुराने समय में जब विदेशियों ने यहां आक्रमण किया था तो उनसे मूर्ति बचाने के लिए मूर्ति को तहखाने में छिपा दिया गया था।

Saturday, 5 September 2015

TEACHERS DAY: अपने करियर में कभी बच्चों को पढ़ाते थे ये राजनेता

आज देश के पहले उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन है। राजनीति में आने से पहले वह 40 साल तक एक टीचर थे। 1962 से हर साल उनके जन्मदिन (5 सितंबर) को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन शिक्षा के क्षेत्र में अहम योगदान देने वाले शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है। हम  आपको बता रहे है देश के उन राजनेताओं के बारे में, जो राजनीति और संवैधानिक पदों पर बैठने से पहले एक टीचर भी रहे हैं।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
5 सितंबर 1888 को चेन्नई से 64 किलोमीटर दूर तिरुत्तनि में भारत के दूसरे राष्ट्रपति और पहले उपराष्ट्रपति का जन्म हुआ था। राजनीति में जाने से पहले वे एक जाने-माने शिक्षाविद् थे। एक साधारण परिवार में जन्म लेने वाले राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज से बतौर शिक्षक अपने करियर की शुरुआत की थी। इसके अलावा, 'अर्ल ऑफ विलिंगडन' की उपाधि मिलने के बावजूद उन्होंने कभी इसका इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने सदैव 'डॉ.' ही लिखा।

Wednesday, 2 September 2015

शास्त्रों से- घर के मंदिर में ध्यान रखनी चाहिए ये 10 बातें

घर में भी देवी-देवताओं के लिए मंदिर बनवाने की परंपरा बहुत ही पुराने समय से चली आ रही है। आज भी काफी लोग इस परंपरा का पालन करते हैं और अपने-अपने घर में मंदिर बनवाते हैं। मंदिर में रोज पूजा करने पर घर का वातावरण पवित्र और सकारात्मक बना रहता है। साथ ही, सभी देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त होती है। यहां कुछ ऐसी बातें बताई जा रही हैं जो घर के मंदिर ध्यान रखनी चाहिए। यदि इन बातों का ध्यान रखा जाता है तो पूजा का फल जल्दी प्राप्त होता है और लक्ष्मी की कृपा से घर में धन-धान्य की कमी नहीं होती है।
1. घर के मंदिर में ज्यादा बड़ी मूर्तियां नहीं रखनी चााहिए। शास्त्रों के अनुसार बताया गया है कि यदि हम मंदिर में शिवलिंग रखना चाहते हैं तो शिवलिंग हमारे अंगूठे के आकार से बड़ा नहीं होना चाहिए। शिवलिंग बहुत संवेदनशील होता है और इसी वजह से घर के मंदिर में छोटा सा शिवलिंग रखना शुभ होता है। अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी छोटे आकार की ही रखनी चाहिए। अधिक बड़ी मूर्तियां बड़े मंदिरों के लिए श्रेष्ठ रहती हैं, लेकिन घर के छोटे मंदिर के छोटे-छोटे आकार की प्रतिमाएं श्रेष्ठ मानी गई हैं।
2. घर में मंदिर ऐसी जगह पर बनाना चाहिए, जहां दिनभर में कभी भी कुछ देर के लिए सूर्य की रोशनी पहुंचती हो। जिन घरों में सूर्य की रोशनी और ताजी हवा आती रहती है, उन घरों के कई दोष दूर हो जाते हैं। सूर्य की रोशनी से वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा भी खत्म होती है और वातावरण सकारात्मक बनता है।
3. घर में जहां मंदिर है, वहां चमड़े से बनी चीजें, जूते-चप्पल नहीं ले जाना चाहिए। मंदिर में मृतकों और पूर्वजों के फोटो भी नहीं लगाना चाहिए। पूर्वजों के फोटो लगाने के लिए दक्षिण दिशा क्षेत्र रहती है। घर में दक्षिण दिशा की दीवार पर मृतकों के फोटो लगाए जा सकते हैं, लेकिन ये फोटो मंदिर में नहीं रखना चाहिए। पूजन कक्ष में पूजा से संबंधित सामग्री ही रखना चाहिए। दूसरी चीजें रखने से बचना चाहिए।
4. घर के मंदिर के आसपास शौचालय होना भी अशुभ रहता है। इसीलिए ऐसे स्थान पर पूजन कक्ष बनाएं, जहां आसपास शौचालय न हो। यदि किसी छोटे कमरे में पूजा कक्ष बनाया गया है तो वहां कुछ स्थान खुला होना चाहिए, जहां आसानी से बैठा जा सके।
5. यदि घर में मंदिर है तो हर रोज सुबह और शाम पूजा अवश्य करना चाहिए। पूजा में घंटी अवश्य बजाएं, साथ ही एक बार पूरे घर में घूमकर भी घंटी बजानी चाहिए। ऐसा करने पर घंटी की आवाज से नकारात्मकता नष्ट होती है और सकारात्मकता बढ़ती है। दिन में कम से कम एक बार दीपक अवश्य जलाएं। इससे वास्तु के कई दोष दूर होते हैं।
6. पूजा में बासी फूल, पत्ते नहीं चढ़ाना चाहिए। पूजा के लिए ताजे जल का ही उपयोग करें। इस संबंध में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि तुलसी के पत्ते, बिल्व पत्र और गंगाजन लंबे समय तक पवित्र माने जाते हैं, इसीलिए इनका उपयोग कभी भी किया जा सकता है। बाकि पूजन सामग्री ताजी ही उपयोग करनी चाहिए। यदि कोई फूल सूंघा हुआ है या खराब है तो वह भगवान को न चढ़ाएं।
7. रोज रात को सोने से पहले मंदिर को पर्दे से ढंक देना चाहिए। जिस प्रकार हम सोते समय किसी प्रकार का शोर या बाधा पसंद नहीं करते हैं, ठीक उसी भाव से मंदिर पर पर्दा ढंक देना चाहिए ताकि भगवान भी शांति से शयन कर सके।
8. जब भी कोई श्रेष्ठ मुहूर्त रहता है, तब मंदिर के साथ ही पूरे घर में भी गौमूत्र का छिड़काव करना चाहिए। गौमूत्र के छिड़काव से पवित्रता बनी रहती है और वातावरण सकारात्मक हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार गौमूत्र बहुत चमत्कारी होता है और इस उपाय घर पर दैवीय शक्तियों की विशेष कृपा होती है। गौमूत्र की गंध से वातावरण के सूक्ष्म कीटाणु भी नष्ट हो जाते हैं।
9. ध्यान रखें घर के मंदिर में पूजा करने वाले व्यक्ति का मुंह पश्चिम दिशा की ओर होगा तो बहुत शुभ रहता है। इसके लिए पूजा स्थल का दरवाजा पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। यदि यह संभव ना हो तो पूजा करते समय व्यक्ति का मुंह पूर्व दिशा में होगा तब भी श्रेष्ठ फल प्राप्त होते हैं। 
10. खंडित मूर्तियों की पूजा वर्जित की गई है। जो भी मूर्ति खंडित हो जाती है, उसे पूजा स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र बहती हुई नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित मूर्तियों की पूजा अशुभ मानी गई है। इस संबंध में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि सिर्फ शिवलिंग कभी भी और किसी भी अवस्था में खंडित नहीं माना जाता है।

Monday, 24 August 2015

यहां कभी रावण करता था पूजा, दैत्य गुरू ने 8 हजार साल तक की थी तपस्या

सावन के मौके पर यूं तो हर शिव मंदिर में शिवभक्तों की भीड़ दिखाई देती है, लेकिन बदायूं-शाहजहांपुर के बॉर्डर पर स्थित देवकली मंदिर में भक्‍तों की भीड़ का नजारा देखते ही बनता है। पौराणिक महत्व होने के कारण यहां ज्‍यादा शिवभक्त पहुंचते हैं। इस शिव मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां कई बार शिवभक्त रावण खुद पूजा करने आ चुका है।

कहा जाता है कि सतयुग के चौथे चरण में दैत्य गुरु शुक्राचार्य इस स्थान पर आए थे। उन्होंने संजीवनी विद्या हासिल करने के लिए यहां तपस्या की थी। सालों तक तपस्या करने के बाद भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए। भगवान शिव ने शुक्राचार्य से कहा था कि जब वो यहां पर आठ शिवलिंग की स्थापना करेंगे तभी उन्‍हें संजीवनी विद्या प्राप्त होगी।

शुक्राचार्य ने की 8 हजार साल तक तपस्या
पुजारी अखिलेश गिरी गोस्वामी बताते हैं कि अमूमन किसी भी शिवमंदिर में एक शिवलिंग होता है, लेकिन पटना देवकली मंदिर में शुक्राचार्य ने आठ हजार सालों तक तपस्या कर संजीवनी विद्या हासिल की थी। इन आठ हजार सालों में उन्होंने सर्व, रूद्र, उग्र, भीमा, पशुपति, इशा नकशा, महादेव और राम नाम के आठ शिवलिंगों की स्थापना की। पुजारी कहते हैं कि प्राचीन समय में मंदिर के पास से होकर गंगा निकलती थीं। समय के साथ-साथ वो भी विलुप्त होती चली गई। इसे अगहर भी कहते हैं।
खुदाई में निकले राख से भरे हवनकुंड
सरोवरनुमा रह जाने से इसे शुक्र काशी के नाम से जाना जाने लगा। बताया जाता है कि ये झील चर्म रोगियों के लिए वरदान साबित होती थी। करीब दस साल पहले ये लुप्त हो गई। लगभग तीन साल पहले मंदिर का सौंदर्यीकरण कराने के लिए मंदिर की खुदाई की गई थी। खुदाई में करीब 11 फिट नीचे दो हवनकुंड निकले। इसमें राख भरी हुई थी। उस राख को लेने के लिए भक्‍तों की भीड़ लग गई। बाद में डीएम ने अपनी मौजूदगी में राख को बंटवाया था। यही नहीं खुदाई में मिले ईंटों को जब तोड़ा गया, तो उसमे छोटे-छोटे शिवलिंग मिले थे।
मंदिर पर बुरी नजर डालने वाला हो गया तबाह
पुजारी अखिलेश गिरी गोस्वामी ने जब भी मंदिर पर किसी ने बुरी नजर डाली, उस पर संकट जरूर आया है। उन्होंने साल 1969 के एक वाक्‍ये के बारे में बताया कि उस साल एक दबंग व्यक्ति ने मंदिर में डाका डलवाया था। उस व्‍यक्ति को मंदिर के पुजारी के पिता और दादी ने पहचान लिया था। जांच के लिए आए तत्कालीन दरोगा को जब कामयाबी नहीं मिली, तो उन्होंने मंदिर में अर्जी लगा दी। इसके बाद से ही बदमाश परेशान रहने लगा। हालत ये हो गए कि बदमाश की मां ने अपने बेटे की काली करतूत के बारे में सबको खुद बताया।

बंदरों से घिरा रहता है पूरा मंदिर
इस शिव मंदिर में बंदरों की फौज हमेशा रहती है। कभी-कभी ये भक्तों के लिए आफत भी साबित होते हैं। पुजारी अखिलेश कहते हैं कि करीब दस साल पहले यहां बंदरों की फौज इकठ्ठा हुई थी। तब से लेकर आज तक ये यहां से नहीं गए हैं।

 
इस मंदिर में मुस्लिम भी झुकाते हैं सिर
इस मंदिर में सौहार्द भी देखने को मिलता है। पुजारी के मुताबिक, यहां मुस्लिम भी सिर झुकाते हैं। मंदिर के विस्तार के लिए बहुत समय पहले फकीर मोहम्मद शाह ने जमीन मंदिर के लिए दान की थी। इसी के बाद से मुस्लिम यहां अपने बच्चों का मुंडन भी करवाते हैं।
दो दिन पहले से शुरू हो जाती है तैयारियां
पुजारी अखिलेश ने बताया कि सावन के महीने में यहां भक्तों की काफी भीड़ देखने को मिलती है। महाशिवरात्रि पर दो दिन पहले से ही तैयारियां होना शुरू हो जाती हैं। बेल पत्र, धतूरा, बेर आदि की दुकानें लगने लगती हैं। भक्तों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पुलिस फोर्स भी तैनात की जाती है। 

भद्रा काल खत्म होने के बाद बांधे राखी, भाइयों को मिलता है शुभ फल

वैदिक काल से श्रावणी पूर्णिमा को भाई-बहन का पावन पर्व रक्षा बंधन मनाया जा रहा है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है और भाई उनकी रक्षा करने का वचन देता है। वहीं, रक्षा बंधन के दिन भद्रा काल के बाद ही राखी बांधनी चाहिए। इस बार ये भद्रा काल 1 बजकर 50 मिनट पर खत्म हो रहा है। ऐसे में राखी बांधने के लिए इसके बाद का ही समय शुभ है।
पुराणों के अनुसार, सबसे पहले देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र को रक्षा सूत्र बांधा था। इसके बाद हर साल इंद्र को इंद्राणी भी रक्षा सूत्र बांधने लगीं। तब से लेकर आज तक ये त्यौहार मनाया जाता है। तभी से ये त्यौहार आज भी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। डॉ. शक्तिधर शर्मा के अनुसार, भद्रा का विचार रक्षा बंधन के समय अवश्य करना चाहिए।
भद्रा काल खत्म होने के बाद बांधे राखी
रक्षा बंधन के दिन भद्रा काल के बाद ही राखी बांधना शुभ होगा। इस बार भद्रा काल 29 अगस्त को 1 बजकर 50 मिनट पर समाप्त हो रहा है। ऐसे में इसके बाद ही भाई को राखी बांधना बेहतर होगा। डॉ. पंडित शक्तिधर शर्मा के अनुसार 'भद्रा' यमराज की बहन है और भद्रा के मुखकाल में भाई की रक्षा के लिए किया गया कार्य शुभ फल प्रदान नहीं करेगा। अच्छा यही होगा कि पुच्छ काल अथवा भद्रा रहित काल में रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाए।
पति-पत्नी के लिए था पर्व
डॉ. पंडित शक्तिधर शर्मा (शास्त्री) के मुताबिक, शुरुआत में ये त्यौहार पति-पत्नी के पवित्र प्रेम का बंधन था। युद्ध में जाते समय शची ने इंद्र को और प्रमिला (सुलोचना) ने मेघनाद को रक्षासूत्र बांधा था। मेघनाद की मृत्यु के बाद ये भाई-बहन का पर्व बन गया। ऐसा माना जाता है कि प्रमिला ने भद्रा के मुखकाल में राखी बांधी थी। इस वजह से इसका प्रभाव नहीं हुआ और मेघनाद युद्ध में मारा गया। शुरुआत में राजा बलि को उनकी बहन लक्ष्मी ने रक्षा सूत्र बांधकर विष्णु से मुक्त कराया था।
कर्क राशि में होता है सूर्य
श्रावणी पर्व के दिन गृहस्थी और वानप्रस्थी दोनों को इस दिन किए जाने वाले उपाकर्म और श्रावणी कर्म करने चाहिए। मान्यता है कि इस दिन गोबर, मिट्टी, मुल्तानी मिट्टी, यज्ञ भस्म आदि का लेप करके स्नान करना चाहिए। इससे त्वचा के रोगों का विनाश होता है। डॉ. पंडित शक्तिधर शर्मा ने बताया कि कर्क राशि में सूर्य होने के कारण आसमान में बादल छाए रहते हैं। इस वजह से उसकी किरणें पृथ्वी पर नहीं पहुंचती, जिससे कई तरह की बीमारियां और संक्रमण होने का खतरा रहता है। इनसे बचने के लिए ही श्रावणी कर्म किए जाते हैं।
श्रावणी कर्म करने से खत्म होते हैं रोग
डॉ. शक्तिधर शर्मा कहते हैं कि सनातन धर्म में जितने पर्व हैं, वे इंसान बेहतर स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए है। साथ ही एक-दूसरे में परस्पर प्रेम बनाए रखने के लिए आयोजित किए जाते हैं। इसलिए भविष्य पुराण में बताया गया है कि सभी रोगों का विनाशक है श्रावणी कर्म।
सावन के महीने में किए जाते हैं ये कर्म
1. तत्तद्स्नान
2. सूर्य अराधना
3. प्राणायाम
4. अग्निहोम
5. ब्रह्मर्षि पूजन

भारत के इस आइलैंड पर जाने वाले नहीं लौट पाते हैं वापस



इस आधुनिक जीवन में आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनके पास न बिजली है, न सड़क है, न इंटरनेट। यहां तक की इनका किसी सिविलाइजेशन से कोई ताल्लुक भी नहीं है। भारत के अधिकार क्षेत्र में आने वाला सेंटिनल आइलैंड एक ऐसी ही जगह है। यहां रहने वाली सेंटिनलीज जनजाति का आधुनिक मानव सभ्यता से कोई लेना-देना नहीं है। बहुत बार इसको आधुनिक समाज से जोड़ने का प्रयास किया गया, लेकिन इस जनजाति के लोग इतने ज्यादा आक्रामक हैं कि वे किसी को अपने पास आने ही नहीं देते।
कुछ मामलों में इक्का-दुक्का लोगों ने उन तक पहुंचने का प्रयास किया तो इन लोगों ने उन्हें मार दिया। एक भागा हुआ कैदी गलती से इस आइलैंड पर पहुंचा तो उसे भी मार दिया। सन् 1981 में एक भटकी हुई नौका इस आइलैंड के करीब पहुंची थी। उसके मेंबर्स ने बताया कि कुछ लोग किनारों पर तीर-कमान और भाले लेकर खड़े थे। हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम वहां से निकलने में सफल रहे।
2004 में आए भूकंप और सुनामी के बाद भारत सरकार ने इस आइलैंड की खबर लेने के लिए सेना का एक हेलिकॉप्टर भेजा था। लेकिन यहां के लोगों ने उस पर भी हमला कर दिया। हवाई तस्वीरों से यह साफ होता है कि ये जनजाति खेती नहीं करती, क्योंकि इस पूरे इलाके में अब भी घने जंगल हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह जनजाति शिकार पर निर्भर है। बहुत से लोगों का मानना है कि इस जनजाति तक पहुंच बनाई जानी चाहिए। वहीं, कुछ मानते हैं कि उन्हें अपने हाल पर छोड़ देना ही ठीक है।